ओशो: जिनके होने से दुनिया सम्‍मानित हुई

रजनीशचंद्र मोहन (११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्‍हें हम सब ओशो के नाम से जानते हैं। उनकी समाधि पर खुदा है, ओशो: ''जिनका न कभी जन्‍म हुआ और न म़त्‍यु। 11दिसंबर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक इस पृथ्‍वी ग्रह की यात्रा पर आए। ''
19 जनवरी 1990 को ओशो ने अपना शरीर छोड़ा। शरीर छोड़ने से पूर्व ओशो निवेदन करते हैं कि उन्‍होंने संन्‍यासियों की मृत्‍यु पर उत्‍सव मनाने का जो ढंग दिया है, उसी तरह उनका भी उत्‍सव मनाया जाए। मृत्‍यु के बाद उनके शरीर को 10 मिनट तक बुद्धा हॉल में रखा गया था और उनके संन्‍यासियों ने उत्‍सव मनाया था। उसके बाद एक भव्‍य जुलूस के साथ बर्निंग घाट तक ले जाया गया, जहां सारी रात यह उत्‍सव जारी रहा।

आखिर कौन थे ओशो
साहित्‍यकार अमृता प्रीतम के शब्‍दों में, 'ओशो वह थे, जिनके होने से यह दुनिया सम्‍मानित हुई।' वह कहती हैं,  ''रजनीश एक अकेला नाम है, सदियों में अकेला नाम, जिसने दुनिया को भय मुक्‍त होने का संदेश दिया। कुछ लोग होते हैं- चिंतन, कला या विज्ञान के क्षेत्र में, जो प्रतिभाशाली होते हैं और कभी-कभी यह दुनिया उन्‍हें सम्‍मानित करती है। लेकिन रजनीश अकेले हैं, बिल्‍कुल अकेले, जिनके होने से यह दुनिया सम्‍मानित हुई, यह देश सम्‍मानित हुआा''
ओशो को अपनी मृत्‍यु का आभास पहले ही हो गया था। उन्‍होंने अपने संन्‍यासियों से कहा था, यदि मैं शरीर छोड़ भी दूं तो भी मैं अपने संन्‍यासियों को छोड़ने वाला नहीं हूं। मैं उतना ही उपलब्‍ध रहूंगा, जितना कि अभी हूं। परंतु केवल यह बात ध्‍यान देने योग्‍य है, क्‍या तुम मेरे लिए उपलब्‍ध हो

ओशो और नवसंन्‍यास
आज उनका नव संन्‍यास पूरी दुनिया में फल-फूल रहा है। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह के शब्‍दों में, ओशो ने धर्म को मुक्ति और उत्‍सव का रूप दिया। उन्‍होंने धर्म को दुख व उदासी से मुक्‍त किया। उनके शिष्‍यों की ओर देखो तो उनके चेहरे पर हमेशा एक मुस्‍कान बनी रहती है। खुशवंत सिंह कहते हैं, मैं सोचता हूं, ओशो ने जो बुनियादी काम किया वह था धर्मों पर जमी हुई धूल को पोंछ डालने का। धर्म में जो-जो बेकार की चीजें थी, जो आदमियों की छाती पर हावी हो गई थी, उन्‍हें काट-काटकर अलग करने में उन्‍होंने जरा भी दया नहीं दिखाई। पूरे साहस के साथ उन्‍होंने उन चीजों की आलोचना की। और फिर जो-जो सार था, फिर वह चाहे जहां भी हो उसे संजोकर मनुष्‍य के लिए उपलब्‍ध करा दिया।''


ओशो ने नव-संन्‍यास की अवधारणा दी। उन्‍होंने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया । ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी । सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है।

उनकी नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में देश में हजारों वर्षों से प्रचलित संन्‍यास, जिसमें घर-परिवार छोड़कर, भगवे वस्त्र पहनकर जंगल गमन प्रचलित था, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। वह सन्यास आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका, मस्ती न बन सका। दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है ? धीरे-धीरे सन्यास पूर्णतः सड़ गया। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे-सन्यास के मौलिक रूप में। अथवा राजा जनक के समय सन्यास ने जो गहराई छुई थी, वह संसार में कमल की भांति खिल कर जीने वाला सन्यास नदारद हो गया। नस-संन्‍यास के जरिए उन्‍होंने शिक्षा दी कि जिंदगी का उत्‍सव मनाओ, वास्‍तव में यही सच्‍चा सन्‍यास है। उन्‍होंने कहा, मनुष्‍य हंसना भूल गया है, जबकि हंसी सबसे बड़ा ध्‍यान है।
अंत में वह अपने इन नव संन्‍यासियों से कहते हैं, '' एक व्‍यक्ति जो प्रेम को उपलब्‍ध हो गया है, वह मर तो सकता है, परंतु उसका प्रेम बना रहता है। बुद्ध जा चुके हैं, उनका प्रेम जारी है। मैं विदा हो जाऊंगा, परंतु मेरा प्रेम बना रहेगा।''
ओशो का जन्‍म11 दिसंबर 1931 को जब मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (रायसेन जिला) में रजनीशचंद्र मोहन का जन्म हुआ। जन्‍म के बाद तीन दिन तक वे बिल्‍कुल भी नहीं रोए थे और न ही दूध ‍पिया। बाद में एक प्रवचन के दौरान ओशो ने बताया था कि सात सौ वर्ष पूर्व का उनका इक्कीस दिवसीय उपवास था, जो पूरा नहीं हो सका था। तीन दिन बचे रह गए थे, जिसे वह इस जन्‍म में पूरा कर रहे थे।
सात वर्ष में मृत्‍यु योगओशो की नानी ने एक प्रसिद्ध ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्‍भुत थी।कुंडली पढ़ने के बाद वह बोला, यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी मुकम्मल कुंडली बनाऊँगा- क्योंकि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है, इसलिए कुंडली बनाना बेकार ही है।
सात वर्ष की उम्र में ओशो के नाना की मृत्यु हो गई तब उनकी लाश ओशो के सामने पड़ी थी और पूरी रात वे उनकी नानी के साथ थे। ओशो अपने नाना से इस कदर जुड़े थे कि उनकी मृत्यु उन्हें अपनी मृत्यु लग रही थी वे सुन्न और चुप हो गए थे लगभग मृतप्राय। लेकिन वे बच गए और सात वर्ष की उम्र में उन्हें मृत्यु का एक गहरा अनुभव हुआ।
ज्योतिष ने कहा था कि 7 वर्ष की उम्र में बच गया तो 14 में मर सकता है और 14 में बचा तो 21 में मरना तय है, लेकिन यदि 21 में भी बच गया तो यह विश्व विख्यात होगा।
14 वर्ष की उम्र में उनके शरीर पर एक जहरीला सर्प बहुत देर तक लिपटा रहा। फिर 21 वर्ष की उम्र में उनके शरीर और मन में जबरदस्त परिवर्तन होने लगे उन्हें लगा कि वे अब मरने वाले हैं तो एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, जहाँ उन्हें संबोधि घटित हो गई। बस यही से दुनिया का भविष्य तय हो गया।
ओशो ने कभी कोई किताब नहीं लिखीओशो ने जीवन में कभी कोई किताब नहीं लिखी। मगर दुनिया भर में हुए संतों और अद्यात्मिक गुरुओ की श्रृंखला में वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनका बोला गया एक-एक शब्द प्रिंट, ऑडिओ और वीडिओ में उपलब्ध है। आज हैरी पाटर के बाद ओशो ही एक ऐसी शख्सियत हैं जिनको दुनिया भर में सबसे अधिक पढ़ा जाता हैं। हैरी पाटर का विश्व की सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके बाद अगर किसी और पुस्तक का स्थान है तो वह ओशो की किताबें हैं।
हर रोज प्रकाशित हो रही है ओशो की पुस्‍तक
दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी भाषा में हर रोज ओशो की एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है। ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजोर्ट पुणे के अनुसार हैरी पाटर की किताब का विश्व की 64 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जबकि ओशों की किताबें 54 भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। आने वाले समय में विश्व की सभी भाषाओं में प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा है। ओशों की पुस्तकों के लिए इस समय दुनिया की 54 भाषाओं में 2567 प्रकाशन करार हुए हैं। इनमें प्रकाशित होने वाले ओशो साहित्य की सालाना बिक्री तीस लाख प्रतियों तक होती है।


आज की तारीख में दुनिया भर में ओशों के प्रकाशकों की संख्या 212 तक पहुँच चुकी है। इनमें दुनियाभर के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा प्रकाशनों वाली संस्था भी शामिल है। ये हैं न्यूयॉर्क के रेंडम हाउस और सेंट मार्टिन प्रेस, इटली के बोम्पियानी और मंडरडोरी, स्पेन के मोंडाडोरी रेंडम हाउस तथा भारत के पुणे जैसे संस्थान। पहले ओशो की पुस्तकों को तीन से पाँच हजार पुस्तक की दर से छापा जाता था वहीं अब उसका पहला मुद्रण 25 हजार तक होना मामूली बात है।
ओशो साहित्य की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ओशो की आत्मकथा नामक पुस्तक के पहले संस्करण की दस हजार सजिल्द प्रतियाँ इटली में केवल एक महीने में ही बिक गई। स्पेनिश भाषा में ओशो की पुस्तकों की सालाना बिक्री ढाई लाख से भी अधिक है।

ओशो की पुस्तक जीवन की अभिनव अंतदृष्टि का पेपरबैंक संस्करण सारी दुनिया में बेस्ट सेलर साबित हुआ है। वियतनामी, थाई और इंडोनेशियाई समेत 18 भाषाओं में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारतीय भाषाओं में हिन्दी के अलावा तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, गुजराती, गुरुमुखी, बंगाली, सिंधी तथा उर्दू में ओशो की पुस्तकें अनुदित हो चुकी हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में एक साल में ओशो की करीब 50 हजार पुस्तकें बिकती हैं। इतनी ही अकेले तमिल में बिकती हैं। पूरे देश में आज पूना एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ से सबसे अधिक कोरियर और डाक विदेश जाती है।

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